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Saturday, August 15, 2015

Greater Haryana (Subah-e-Delhi)

1860 से पहले का सूबा-ए-देहली/दिल्ली सूबा/Delhi State (विशाल हरयाणा), विशाल हरयाणा का ये क्षेत्र 1947 की हिसार-रोहतक-अम्बाला डिवीज़न, वर्तमान दिल्ली और दोआब की मेरठ डिवीज़न को मिलकर बनता था। मेरठ डिवीज़न बुलंदशहर से लेकर देहरादून तक थी, जिसमे आज के बाघपत, शामली, हापुड़ , मुजफ्फरनगर , सहारनपुर, हरिद्वार, देहरादून,बिजनौर, गाज़ियाबाद , बुलंदशहर आदि जिले शामिल थे। अकबर से पहले १२ सूबे थे जो बाद में २१ हो गए। सर्व खाप पंचायत मुख्यालय शोरम के अनुसार दिल्ली के चारो और लगभग 100 कोस तक हरयाणा था। 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने इस क्षेत्र के लोगो को दंड के तौर पर विभाजित कर दिया। दोआब के इलाके को अवध और अलाहबाद के साथ मिला कर संयुक्त प्रान्त बनाया। संयुक्त प्रान्त में चार सूबे थे जिसमे आगरा , इलाहबाद , अवध और हरयाणा के दोआब का क्षेत्र।
पश्चिम यानि वर्तमान हरयाणा को लाहौर सूबे में मिलाकर पंजाब बनाया गया जिसमे हरयाणा का ज्यादातर हिस्सा रियासतों में बाँट दिया गया। पर हरयाणवी लोग इस विभाजन को मात्र 150 साल में भूल गए। आज आपस में ही लड़ते रहते है। हजारों साल के हरयाणा को भूल कर इंदिरा गांधी के बनाये 50 साल पुराने हरयाणा को असली हरयाणा मान बैठे।


संस्कृति/कल्चर के इतनी ही बात हो रही है तो कुछ बात मैं भी कर दू, अपनी संस्कृति हरयाणवी है, पर सरकारी लकीरों ने इसको यूपी वाली बना दिया, लोग हरयाणवी होकर भी खुद को हरयाणवी नहीं बोल सकते। वैसे ये अन्याय अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति के दंड के तौर पर इस क्षेत्र के लोगो के साथ किया था, पर ये आज तक जारी है, नेहरू ने तो राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट तक नहीं मानी थी, जिसके हिसाब से मेरठ डिवीज़न , दिल्ली और रोहतक-अम्बाला डिवीज़न के क्षेत्र को हरयाणा चिन्हित किया गया था। 


बाहर के लोग हमें हरयाणवी ही बोलते है, फिर दबी जुबान में खुद बताना पड़ता है कि यूपी से है। देश में ऐसे सांस्कृतिक बटवारे का ये अकेला उदहारण है। जिसको राजनेताओ ने अपने फायदे के हिसाब से इस्तेमाल किया, हिसाब से लकीरें खींचते गए।
यूपी के साथ जुड़ने का दुःख नहीं बल्कि हरियाणा से टूटने का दुःख जरूर है। उम्मीद तो है कि कभी न कभी तो इस क्षेत्र को अपनी सांस्कृतिक पहचान जरूर मिलेगी। अलग राज्य की मांग करने वालो को भी इसका नाम पश्चिम प्रदेश के बजाय पूर्वी हरयाणा रखना चाहिए।

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Maps are taken from the book The Atlas of Mughal Empire by Prof.Irfan Habib

Arya Samaji can not be "Jat"

वर्ण व्यवस्था में जाति व्यवस्था बिलकुल ख़त्म हो जाती है। यानि या तो जाति को मानो या फिर वर्ण को! दोनों की बात करना दोहरी मानसिकता है। कुछ जाट हर बात में वर्ण को ले आते है। खासकर आर्य समाजिस्ट जाट। खैर आर्य समाज में जाति व्यवस्था नहीं है, ऐसे में हम आर्य समाजी और जाट शब्द दोनों को एक साथ इस्तेमाल नहीं कर सकते। क्योंकि ये दोनों विरोधाभासी शब्द है, जो आर्य समाजी है वो जाट नहीं, जो जाट है वो आर्य समाजी नहीं। आर्य समाजी या तो क्षत्रिय हो सकता है, या वैश्य , या ब्राह्मण या फिर शूद्र। जो जाट खेती करता है वो वैश्य, जो अपने पशुओ के गोबर को हाथ लगाता है वो शूद्र , जो अध्यापक है वो ब्राह्मण , और जो सेना में है वो क्षत्रिय। ये वर्ण जन्मजात नहीं है, यानि वर्ण बदलते रहते है। आर्य समाजिओं के हिसाब से शादी वर्ण में ही करनी चाहिए। यानि जाति व्यवस्था को भूल अपने वर्ण में कर सकते है।
इसमें एक बात और महत्वपूर्ण है, ब्राह्मण (जो जाट ब्राह्मण है वे ध्यान दे ) का पुत्र 8 साल उम्र में स्कूल जा सकता है, क्षत्रिय का 12 साल , वैश्य का 14 साल और शूद्र का 16 साल यानि मेरिट का पूरा ख्याल रखा गया है। तो हे भद्रजनों आप मुझे ये बताओ कि आप आर्य समाजी है या फिर जाट ?? अगर आर्य समाजी है तो कर्म के आधार पर अपना अपना वर्ण बताने का कष्ट करे।
*यजोपवीत धारण करने और विद्यालय जाने की सटीक उम्र अपने आप देख ले।

Crown of Jatland- Baghpat

अपनी हिम्मत से हमने खुद छुआ है आसमां को। 
ऐ ज़माने हम तेरी इमदाद पर जिन्दा नहीं॥ 

पश्चिम उत्तर प्रदेश के बाघपत जिले के लिए ये पंक्ति बिलकुल सही बैठती है। सरकारी अनदेखी और बिना सुविधाओं के इस जिले ने जो मुकाम हासिल किये है उसके लिए ये शब्द भी कम ही है। आज मै आपको अपने जिले का परिचय करवाता हूं ।
बाघपत जिला पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ऊपरी दोआब के क्षेत्र में पड़ता है। इसकी सीमा पूर्व में मेरठ , उत्तर में शामली , दक्षिण में गाज़ियाबाद और पश्चिम में पानीपत , सोनीपत और दिल्ली से मिलती है। इसके पश्चिमी छोर पर यमुना तो पूर्वी छोर पर हिंडन है। इस जिले में बड़ौत , बाघपत , खेकड़ा तीन तहसील है। 

1997 में बने इस जिले के क्षेत्र का इतिहास काफी पुराना है। हड़प्पा सभ्यता के अवशेष इस क्षेत्र की प्राचीनता की निशानी है। बाघपत शब्द संस्कृत के शब्द "व्याघ्रप्रस्थ " का हिंदी रूप है। जिसका मतलब है बाघों की धरती( Land of Tigers). पौराणिक कथाओं के अनुसार कृष्ण जी ने कौरवों से पांच क्षेत्र मांगे थे , जिनमे पाण्डुप्रस्था(पानीपत), स्वर्णप्रस्थ (सोनीपत ), मरुप्रस्थ (मारीपत ), तिलप्रस्थ( तिलपत) और व्याघ्रप्रस्थ(बाघपत) नाम थे। महाभारत में वर्णित लाक्षागृह भी यही स्थित है। बाल्मीकि की तपोभूमि भी बालैनी गांव में स्थित है, जहां लव कुश का बचपन बीता। 


ये धरती गवाह रही है जाट वीरों के पराक्रम की , ये धरती गवाह रही है खाप परंपरा की , ये धरती गवाह रही है क्रांति की। मुग़ल काल से लेकर अंग्रेजों तक यहाँ खाप का राज रहा। जब भी यहाँ किसी ने कब्ज़ा करने की कोशिश की तो मुहतोड़ जवाब दिया गया , चाहे वो तैमूर रहा हो या फिर अंग्रेज। 1857 में देश खाप के बाबा शाहमल सिंह तोमर ने इस क्षेत्र को अंग्रेजों से आज़ाद कराकर , स्वतंत्र देश घोषित किया और बड़ौत को राजधानी बनाया , जो राज लघभग 2 साल तक स्वतंत्र देश रहा। क्रांति के दमन में हुई ज्यादतियों का बदला लेने वाली इस क्षेत्र की खाप वीरांगनाओ शिवदेई , जयदेई को कौन भूल सकता है , जिन्होंने अंग्रेज अफसरों को लखनऊ जाकर मौत के घाट उतरा था। उस मास्टर चन्द्रभान को कौन भूल सकता है जिसने शेखावाटी में अपने जाट भाइयों को शिक्षित किया और क्रांति का बिगुल बजाया। 

दरअसल 1857 तक ये क्षेत्र "विशाल हरयाणा " यानि " सूबा - ए -दिल्ली " का हिस्सा था, जिसको क्रांति के दंड़स्वरूप हरियाणा से तोड़कर अवध आगरा सूबे में मिला दिया। यहाँ देशवाली भाषा बोली जाती है, हरयाणवी का ही एक रूप है। यही कारण है की बहार के लोग यहाँ के लोगो को हरयाणवी ही मानते है। छपरौली/बड़ौत वर्तमान हरयाणा के काफी नजदीक है, बस एक नदी का फर्क है बीच में।
यहाँ हमेशा खापों का राज रहा। यहाँ की प्रमुख खाप है , देश खाप, चौगामा खाप , छप्परौली चौबीसी और लाकड़ा चौहान खाप ।
बाघपत का राजनीती में हमेशा ही सबसे ऊपर नाम रहा है। देश में सबसे ज्यादा जाट आबादी वाले छपरौली क्षेत्र से अपनी राजनीती की शुरुआत करने वाले चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने और बाद में देश के प्रधानमंत्री बने। वे देश के अकेले जाट है जो देश के प्रधानमंत्री बने। चौधरी अजीत सिंह केंद्र में लम्बे समय तक मंत्री रहे। चौधरी सोमपाल शास्त्री भी केंद्रीय कृषि मंत्री रहे। यानि ऐसी कोई सरकार नहीं रही जिसमे बाघपत से मंत्री ना बना हो। ऐसा नहीं है कि यहाँ के जाट केवल देश की राजनीती तक ही सीमित रहे हो, यहाँ के सत्यवीर चौधरी अमेरिका में लम्बे समय तक सीनेटर रहे। डॉक्टर हरी सिंह अमेरिका में अमेरिकन साइंटिफिक सोसायटी के अधय्क्ष रहे है। वर्तमान सांसद डॉक्टर सत्यपाल सिंह भी मुंबई पुलिस के कमिश्नर रहे है। UGC के चेयरमैन चौधरी वेद प्रकाश तोमर भी यही के बावली गांव से है। नमक हलाल , हेरा फेरी , और शराबी जैसी फिल्मों के निर्माता सतेंदर पाल चौधरी भी बाघपत से ही थे।

अगर बात खेल की की जाये तो यहाँ के जाटों ने दुनिया में अपने झंडे गाड़े है। बिना किसी सुविधा के जो काम इस जिले के जाटों ने किया शायद ही ऐसा कही और हुआ हो। 6 अर्जुन अवार्ड वाला ये छोटा सा जिला जरूर अपने आप पर गर्व कर सकता है। तीन खेल (शूटिंग , कबड्डी , और कुश्ती ) में ये जिला नम्बर एक स्थान पर है। 4 अर्जुन अवार्ड केवल कुश्ती में ही है। जिसमे शौकेंदेर , राजीव तोमर , सुभाष , और सुनील राणा ने कुश्ती में अर्जुन अवार्ड हासिल किये। शूटिंग में विवेक सिंह सीमा तोमर ने अर्जुन अवार्ड हासिल किया। राजीव तोमर को "खेल रत्न " से भी सम्मानित किया जा चुका है। कबड्डी में भी एक बार बाघपत का दबदबा रहा, सुभाष चौधरी नेशनल टीम के कप्तान रहे , वही स्क्वाड्रन लीडर एस पी सिंह नेशनल कबड्डी टीम के कोच रहे। कबड्डी लीग में बेस्ट रेडर रहे राहुल चौधरी भी मूलत बाघपत जिले के ही बावली गांव से बिजनौर गए है। इंटरनेशनल शूटिंग कोच डॉक्टर राजपाल सिंह भी बाघपत जिले से है, जिनके मार्गदर्शन में देश के खिलाडी शूटिंग में मेडल ला रहे है। शूटिंग का शौक इस कदर है कि दुनिया की सबसे ज्यादा उम्र की शूटर दादी चन्द्रो और दादी प्रकाशो को दुनिया जानती है। हालाँकि यहाँ के खिलाडियों को टीस रही है , अगर हरयाणा जैसी सुविधाएँ इस जिले को मिले मिले तो यहाँ के खिलाडी और बेहतर कर सकते है। 

बाघपत के बारे में जितना लिखो उतना कम है। देश का सबसे बड़ा जाट कॉलिज बड़ौत की शान में चार चाँद लगा देता है। साढ़े चार लाख हिन्दू जाट और लगभग दो लाख मुले जाट आबादी के साथ ये देश का सबसे ज्यादा जाट वोट वाला जिला है। यहाँ दोआब के बाकि जिलो से कम " प्रति व्यक्ति भूमि " होने के बावजूद सबसे ज्यादा उत्पादकता वाला जिला है। प्रतिव्यक्ति आय की बात करे तो गुडगाँव, फरीदाबाद , नॉएडा , ग़ज़िआबाद के बाद पांचवे नंबर पर है। सरकारी कर्ज की बात करे तो ये उत्तर भारत का सबसे कम कर्ज वाला जिला है। आज भी लगभग 2100 करोड़ रूपए मिल मालिकों पर बकाया है। एशिया का सबसे बड़ा एनिमल हेल्थ रिसर्च इंस्टिट्यूट भी बाघपत में स्थित है।
क्राइम ने जरूर इस जिले की शान में बट्टा लगाया है, 2012 में इस जिले ने मुजफ्फरनगर को पीछे छोड़ दिया था। पर समाज और खापों ने दुबारा यहाँ हालत संभाले और युवाओं को दुबारा खेल की तरफ मोड़ा। सामाजिक सद्भाव की बात करे तो यहाँ आज तक कोई दंगा नहीं हुआ। यहाँ के लोग लड़ाकू जरूर है पर दंगेबाज बिलकुल भी नहीं है।
बाकी आप भी कुछ बताओ जाटलैंड बाघपत के बारे में..........

Written By- Abhishek Lakra 

Monday, December 15, 2014

sir choturam speech

अखिल भारतीय जाट महासभा के लायलपुर अधिवेशन मे 9 अप्रैल 1944 को चौधरी छोटूराम ने एक ऐतिहासिक भाषण दिया था , और जाट गज़ट मे इसे शब्दाश: प्रकाशित किया गया था | चौधरी साहब का उस वक़्त का यह भाषण आज के माहौल मे सभी धर्मो के जाटों के लिए एक सबक हैं | यह थोड़ा लंबा जरूर हैं पर सभी जाट भाइयो से अनुरोध हैं की एक बार इसे जरूर पढे और इस पर सोच विचार करे की हम उस महान आत्मा की विचारधारा पर कितना अमल कर रहे हैं | चौधरी छोटूराम के इस भाषण मे पूरी जाट कौम की तरक्की का मंत्र हैं | कुछ लोगो का मानना हैं अब जमाना बदल गया हैं परंतु इस भाषण को पढ़ने से और आज के हालत को देखते हुए तो ऐसा लगता हैं कि हम आज भी उसी मोड़ पर खड़े हैं |

' हम एक ऐसे नाजुक दौर से गुजर रहे हैं कि हमें अपनी गतिविधियों एवं भाषणों मे बहुत सावधानी बरतनी चाहिए | इस मौके पर यदि हम कोई गलत कदम उठा लेते हैं तो हमारे आंदोलन को अपूरणीय क्षति पहुँच सकती हैं | हमारे द्वारा बोला जाने वाला हर शब्द उचित एवं संतुलित होना चाहिए | हमारे विरोधियों और आलोचकों की कमी नहीं हैं | वे हमारे कथनों की व्याख्या अपनी सहूलियत के मुताबिक ऐसे तरीके से करेंगे कि हमारे उद्देश्यों को नुकसान हो और हमारे विरुद्ध हर प्रकार का भ्रामक प्रचार किया जा सके | इसलिए मैं काफी सोच-समझकर , और पूरी जिम्मेवारी के साथ , पंजाब , भारत और पूरी दुनिया को दृष्टि मे रखकर बोलने जा रहा हूँ |

सर्व प्रथम मैं जाट आंदोलन के उद्देश्यों , कार्यकर्मों और कार्यक्षेत्र के विषय में बताना चाहता हूँ | बहुत से भ्रम हैं , और बहुत सी शंकाए पैदा कर दी गई हैं , और हमारे विरुद्ध मिथ्या प्रचार किया जा रहा हैं | जान - बूझकर अथवा अंजाने मे उल्टी और बेहूदा आलोचनाए की गई हैं जिसके कारण गैर-जाट समुदाए में या तो भ्रम पैदा हो गया हैं , या हो सकता हैं कि उन के द्वारा पैदा कर दिया गया हैं |

जाट महासभा की स्थापना सन 1905 में हुई थी | मैं इस के अस्तित्व मे आने के समय से ही इस का सदस्य चला आ रहा हूँ | इसकी गतिविधिया मुख्यता संयुक्त प्रांत (यू.पी) के उत्तरी -पश्चिमी जिलों , पंजाब के दक्षिणी -पूर्वी जिलों और किसी सीमा तक राजपूताना के उत्तरी-पूर्वी राज्यों तक सीमित हैं | पिछले कुछ वर्षों से इसे पंजाब के मध्यवर्ती जिलों में जाना जाने लगा हैं | पिछले वर्ष सभा के लाहौर अधिवेशन में पंजाब के लिए एक प्रांतीय महासभा की स्थापना करने का निर्णय लिया गया था , और इसका कार्य बिलकुल संतोषजनक रहा हैं | लाहौर चूंकि पंजाब की राजधानी हैं , और वहाँ से कई अखबार निकलते हैं , इसलिए प्रायः अनजाने में ही इन समाचार पत्रों के माध्यम से जाट महासभा को काफी प्रचार मिला हैं |

भारत में जाटों की कुल जनसंख्या डेढ़ करोड़ (1941) से अधिक हैं , और यह मुख्यता भारत के उत्तर-पश्चिम भाग मे इकट्ठी हैं | इन में से एक बड़ी संख्या हिन्दू जाटों की हैं | सिख और मुसलमान जाटों की संख्या भी काफी बड़ी हैं | कुछ हजार ईसाई जाट भी हैं | अधिकतर जाट देहाती क्षेत्रों मे बसे हुए हैं और भूमि जोत पर आश्रित हैं | शैक्षणिक सुविधाए , व्यापारिक एवं औधोगिक गरीविधियाँ शहरों और कस्बों मे केन्द्रित हैं ; इसलिए शिक्षा और आर्थिक पिछड़े हुए हैं | परिणामतः शिक्षा और धन से उनका सामाजिक स्तर भी नीचा हैं | जाट बहुत सी बुराइयों के भी शिकार हो रहे हैं | यदि किसी कौम के पास शिक्षा और धन का अभाव हो और इसका सामाजिक स्तर भी नीचे धंस गया हो , तो इसके राजनीतिक स्तर और महत्व का वर्णन करने की बजाए कल्पना कर लेना ही अच्छा होगा | यह वास्तव मे ही आश्चर्य की बात हैं कि पंजाब में जाटों की संख्या पूरे भारत की कुल जाट आबादी के आधे से भी ज्यादा हैं , परंतु यहाँ उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय हैं | इन की आबादी के एक छोटे से भाग को छोडकर वे भिन्न भिन्न नाम की जोतों (जमाईं) के स्वामी हैं | प्रत्येक फसल की कटाई के बाद वे करोड़ो रुपया भूमिकर और सिंचाई कर के रूप मे सरकार के देते हैं | प्रत्येक जिले से हजारों की संख्या मे जाट सेना मे भर्ती हैं | इन में लाखों की संख्या में इस विश्व-महायुद्ध के दौरान (1939-45) सेना मे गए हैं | उन्होने शोर्य , पराक्रम और बलिदान का ऐसा शानदार प्रदर्शन किया हैं जिस पर दुनिया भर की सर्वाधिक बहादुर कौम भी गर्व करे | लेकिन इस सब के बावजूद जाटों के विषय में कोई नहीं सोचता हैं किसी को भी इन की चिंता नहीं हैं ! दूसरी जातियों के लोग , जिन की संख्या नगण्य सी हैं इनकी वीरता और बलिदान का फल भोग रहे हैं | इन के (जाटों के) दम पर लाभान्वित होने वाले ये लोग कभी ही देश के लिए कोई आर्थिक या सैनिक योगदान देते होंगे , परंतु क्योंकि ये शहरों मे बसते हैं इस कारण शिक्षा के क्षेत्र मे उन्नति कर गए और अफसर बन गए हैं | जाटों के शोर्य और बलिदानों का आकलन तमगों (मेडल्स) के आधार पर अच्छी तरह से किया जा सकता हैं | भारतियों को दिये गए सात विक्टोरिया क्रासों ( सर्वोच्च सैनिक सम्मान ) मे से तीन पंजाबियों ने जीते हैं , और ये सभी ( तीनों ) जाट हैं | इन मे से सूबेदार रिछपाल और छैलूराम वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए | इस जिले का हवलदार प्रकाश सिंह जीवित हैं | एक भारतीय को दिया गया डी.एस.ओ का एक मात्र तमगा कैप्टन मेहर सिंह पुत्र सरदार त्रिलोक सिंह ने जीता हैं जो इसी जिले का जाट हैं | वे लोग , जिन की कौम को कोई श्रेय प्राप्त नहीं हैं , परंतु मजहब-हिन्दू , मुसलमान , सिख , ईसाई के नाम पर दूसरों की सेवाओं का फल चखने के आदि हो गए हैं , किसी दूसरी कौम की पहचान बनने देना नहीं चाहते ! वे केवल यह चाहते हैं कि इन धर्मो मे आने वाली बड़ी कौमो के त्याग और बलिदान का लाभ वे अकेले ही लेते रहे-डकारते रहे ! उन के द्रष्टिकोण से इस से अच्छा कुछ नहीं कि अपने आप थोड़ी सी भी तकलीफ उठाए बिना अथवा प्रयत्न और त्याग - बलिदान किए बिना सारे लाभों को वे ही भोगते रहे ! यद्द्पि पंजाब के जाटों की सामाजिक और शैक्षिक स्थिति अन्य प्रान्तों मे बसने वाले जाटों की अपेक्षा थोड़ी से बेहतर हैं , परंतु जो स्तर काफी पहले प्राप्त कर लेना चाहिए था उस से अब भी काफी नीचे हैं | ' पंजाब जाट महासभा ' की स्थापना जाटों की स्थिति मे सुधार लाने के लिए की गई थी | इस की बहुत सारी गतिविधियों मे लाहौर से एक दैनिक अखबार निकालना शामिल करने का निर्णय लिया गया हैं | इसकी जानकारी मिलते ही हमारे बहुत सारे भाई विचलित हो गए हैं और अपना मानसिक संतुलन एवं शांति खो बैठे हैं ! वे बहुत चिंतित हैं ! इन भाइयों के चैन के लिए मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जाट महासभा के उद्देश्यों मे ऐसा कुछ भी नहीं हैं जिस से इन को नुकसान पहुचता हो ! हम जाटों की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारना चाहते हैं | हमारा उन की धार्मिक राजनीति से कुछ लेना देना नहीं हैं | हमारे जलसों के मंचों पर धार्मिक बहस को कोई जगह नहीं मिलेगी | हम स्वयं को इस तरह की राजनीति मे नहीं उलझाएंगे | हम राजनीतिक मामलों मे केवल इस हद तक संबंध रखेंगे कि हिन्दू , मुसलमान , सिख और इसाइयों के नाम पर जो भी विशेषाधिकार दिये जाते हैं उन मे जाटों को उन का उचित हिस्सा अवश्य मिले | हिस्से से थोड़ा कम मे भी हम चला लेंगे | यदि कोई राजनेता हमारे हितों की रक्षा का आश्वासन दे दे , या जाटों के लिए निर्धारित ( आरक्षित ) किसी उच्च पद पर किसी उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति की नियुक्ति कर दी जाती हैं तो हम सहन कर लेंगे ; लेकिन यदि हर मामले मे , हर बार अयोग्य व्यक्ति जाट समुदाय के अधिकारों का अतिक्रमण करते रहे तो स्वाभाविक हैं कि हमे शिकायत होगी !

हम आर्थिक सांझा हितों की राजनीति से नहीं डिगेंगे | उदाहरण के लिए , मूल्यों पर नियंत्रण का मामला , आवश्यक उपजों को पंजाब अथवा देश से बाहर भेजने पर पाबंदी का मामला , प्रान्त के उद्योगो और व्यापार में हिस्सेदारी , कृषि उपजों के लाने ले जाने पर चुंगी महसूल आदि ये सब आर्थिक सवाल हैं , परंतु इन सब का राजनीतिक महत्व भी हैं | लेकिन ये सब सवाल अपने स्वरूप मे ऐसे हैं कि कोई भी कृषक जाति इन के ऊपर जाटों से मतभेद नहीं करेगी |

हम दूसरों के धार्मिक संगठनो मे कभी हस्तक्षेप नहीं करेंगे ; लेकिन हम इस बात को खुशी से स्वीकार करते हैं कि जब तक भारत के संविधान ( भारत संबंधी अङ्ग्रेज़ी कानून , भारत विधेयक 1935 ) के तहत राजनीतिक अधिकारों का बंटवारा मजहबों पर आधारित , हर धर्म के लोगो को धार्मिक आधार पर संगठित होने और अपने संगठनो को मजबूत करने का अधिकार हैं | क्योंकि कोई भी समुदाए जो इस तरह संगठित नहीं होगा वह घाटे मे रहेगा | हमारे जाट समुदाए मे हर व्यक्ति कि छूट होगी कि चाहे वह कांग्रेस मे शामिल हो जाए अथवा हिन्दू महासभा , अकाली दल , लिबरल फ़ैडरेशन या इंडियन क्रिश्चियन एशोसिएशन मे अपने विश्वास और अपनी मान्यता के अनुसार इन मे से किसी मे शामिल हो जाए | अपनी व्यक्तिगत हैसियत मे वह पाकिस्तान कि मांग कर सकता हैं ; या भारत की एकता व अखंडता के लिए प्रचार कर सकता हैं अथवा पूर्ण स्व-शासन की मांग कर सकता हैं ; परंतु कोई भी इन बातों का विरोध अथवा समर्थन जाट महासभा के मंच से नहीं कर सकेगा |

हमने ( जाट महासभा ने ) राजनीति से अलग रहने का निर्णय इसलिए नहीं लिया हैं , क्योंकि हमारे लिए इन मुद्दो का महत्व नहीं हैं ; इस लिए भी नहीं कि हम किसी ताकत से भय खाते हैं , बल्कि इसलिए लिया हैं कि इस के दो खास कारण हैं | पहला यह कि राजनीति के क्षेत्र मे काम करने वाले असीमित साधनो वाले दूसरे संगठन हैं | जाटों के पास साधन सीमित हैं , जिन को जाटों के आर्थिक , शैक्षिक और सामाजिक स्तर को दूसरी प्रगतिशील जातियों के स्तर के समानान्तर लाने के कार्यों पर खर्च किया जाना चाहिए | उचित शिक्षा प्राप्त कर लेने पर वे जिस किसी भी पार्टी मे जाएंगे , उस पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ समानता के दर्जे और टीम-भावना से कार्य कर सकेंगे | एक गरीब अशिक्षित जाट को किसी भी पार्टी मे कोई सम्मान अथवा पद नहीं मिलेगा | वह तो केवल एक संदेशवाहक छोकरा या नेताओं का व्यक्तिगत नौकर बन कर वह रहेगा ! दूसरे आम राजनीति मे सभी जाटों का मतैक्य नहीं हैं , और न ही सकना स्वाभाविक एवं संभव ही हैं | यहाँ बीरदारी के मंच से उन्हे राजनीतिक चर्चा करने की इजाजत देने से आपसी झगड़े होंगे | हमारा जाट महासभा के मंच को केवल आर्थिक , शैक्षिक और सामाजिक उत्थान के मुद्दो पर चर्चा तक सीमित रखने का यही कारण हैं |

जाट महासभा का किसी दूसरी कौम से कोई विवाद या टकराव नहीं हैं | हमारे आंदोलन का केवल मात्र उद्देश्य अपनी बीरदारी के आर्थिक शैक्षिक एवं सामाजिक उत्थान करने की दिशा मे रचनात्मक एवं ठोस उपाय करना हैं | हमें आम तौर पर सभी समुदयों और जातियों के साथ सहयोग कर के काम करना हैं ; और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति के बावजूद यदि कोई हमारे प्रति दुर्भावना रखे तो दोष हमारा नहीं हैं ! हम दूसरी जातियों के साथ उस हद तक सहयोग करेंगे , जहा तक करना मनुष्य के लिए संभव हैं | हम सब के प्रति प्यार-प्रेम बनाए रखेंगे | हम सांप्रदायिक सदभाव की प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहेंगे | हम पारस्परिक विद्वेष , घृणा और तनाव के मूल कारणो को समाप्त करने की शिक्षा मे प्रयासरत रहेंगे | यदि इस सब के बावजूद कोई हमारी कौम को ज़ोर ज़बरदस्ती , बिना उचित कारणों के कुचलने की कोशिश करेगा तो हम अपना बचाव करने के लिए मजबूर होंगे , वह भी उस हद तक जहां तक आत्मरक्षा के लिए आवश्यक होगा |

जाटों को ही क्यों आतंकित और परेशान किया जाए ! पंजाब मे सभी समुदायों , जैसे ब्राह्मण , खत्री , शिया , सुन्नी , आरोड़े , अग्रवाल , महाजन , कायस्थ , कुरैशी , अरई, अवन, सैयद , मोमिन और भी न जाने कितनों के अपने अलग जातिय सम्मेलन होते रहते हैं | राजपूत , गुजर ,सैनी ,लबाना और अहलुवालिया सभाए हैं | खालसा ब्राथरहूड जैसी सोसाईटिया हैं , अथवा विभीन्न समुदायों के अपने मजहबी सम्मेलन हैं | इस के अतिरिक्त हमे कभी कभी कश्मीरियों और पारसियों के विषय मे भी सुनने को मिलता हैं | पिछले दो वर्षो के दौरान ' चैंबर ऑफ ट्रेड एंड कॉमर्स ' भी काफी चर्चित रहा हैं | इन मे से कुछ पेशो से संबन्धित हैं | कश्मीरी सम्मेलन अपने एक व्यवसाय से संबन्धित हैं | हिन्दू , मुसलमान और सिख अपने स्वयं के मजहब का ख्याल किए बिना इन मे भाग लेते रहे हैं | यदि कोई कबीला अथवा समुदाए एक से अधिक धर्मो मे फैला हुआ हैं , ऐसे कबीले अथवा समुदाए के सभी लोग अपनी जाति-समुदाए के संगठनो कि गतिविधियों मे भाग लेते हैं - जैसे हिन्दू और मुसलमान , अथवा हिन्दू और सिख , अथवा हिन्दू , मुसलमान और सिख बिना धार्मिक विश्वास का लिहाज किए , और बिना किसी औपचारिकता के ! परंतु हमने किसी भी ओर से कोई शिकायत या आपत्ति नहीं सुनी हैं | वास्तव मे ही यह बात आश्चर्यजनक हैं कि अपना संगठन बनाने पर केवल जाट समुदाए को ही क्यों त्रासा और प्रताड़ित किया जा रहा हैं | हिन्दुओ का कहना हैं कि क्या मुसलमान -गैर मुसलमान , जमींदार -गैर जमींदार और शहर देहात के नाम पर विभाजन पर्याप्त नहीं थे । जो अब एक नया विभाजन जाट-गैर जाट के नाम से जोड़ा जा रहा हैं ? आर्य समाजियों का कहना हैं कि इस प्रकार का भेद वेदो और महर्षि दयानंद के सिद्धांतों के विरुद्ध हैं | सीखो कि आपत्ति हैं कि जाट-गैर जाट का भेद पंथ के खिलाफ हैं और सीखो का विभाजन करने के लिए किया जा रहा हैं | मुसलमान यह दलील देते हैं कि इस प्रकार कि भेद-रेखा खींचना कुरान के नियमो के खिलाफ हैं और मुसलमानों को कमजोर करने के लिए ऐसा किया गया हैं |

ये शिकायते और आपत्तियाँ चिंताजनक भी हैं और उत्साहवर्धक भी | धार्मिक विषय हमारी महासभा के कार्य क्षेत्र के बाहर हैं | हम किसी धर्म के सिद्धांतों पर चोट नहीं करते ; और हम ऐसा करे भी क्यों ? क्योंकि हमारा तो विशास है कि एक अच्छा मुसलमान , एक अच्छा हिन्दू , एक अच्छा सिख और एक अच्छा ईसाई , एक अच्छा इंसान , एक अच्छा पंजाबी , एक अच्छा हिंदुस्तानी , और एक अच्छा पड़ोसी भी होगा ! हम मजहबी राजनीति पर किसी बहस कि इजाजत नहीं देते | जाट महासभा शुद्ध राजनीति को भी टालती हैं | अपनी व्यक्तिगत हैसियत मे प्रत्येक जाट किसी भी तरह कि राजनीति का प्रचार करने और किसी भी सामाजिक संगठन का सदस्य बनने के लिए स्वतंत्र हैं | क्या यह हमारे प्रति अन्याय नहीं हैं कि इन हालातों मे भी कुछ लोग हम पर विभाजन पैदा कर के किन्ही धार्मिक संगठनो को कमजोर करने कि साजिश का आरोप लगाते हैं ? इस से अधिक अनुचित और क्या होगा ?

हम यह बात साफ कर देना चाहते हैं कि हम ऐसी किसी भी स्थिति मे कोई सम्झौता नहीं करेंगे जहा हिन्दू-मुसलमान -सिख और ईसाई , हमे पुश्तैनी दास मानते हो , अथवा दसो कि भांति हमारे साथ बर्ताव करे ! और न ही हम उन के इस तथाकथित अधिकार को मानेंगे कि वे -हिन्दू-सिख- मुसलमान-ईसाई-जाटों को पशु कि भांति किसी भी धार्मिक कार्यकर्म मे अथवा अन्य क्रिया-कलापों मे अपनी मर्जी के मुताबिक जब चाहे और जहा चाहे हांक ले जाये ! हम ऐसे धार्मिक आक्रमण को सहन नहीं करेंगे | हम अपने तौर अपने तरीके से सभी धर्मो और उन के गुरुओ पीर-पैगंबरों , ऋषि-मुनियो और देवी-देवताओ को सम्मान देते हैं |

जाति और धर्म के कारण भेद का बहाना : हिन्दू धर्म के सुधारक जैसे आर्य समाज ; और इसी प्रकार दूसरे भी , जैसे मुसलमान और सिख यह कहते हैं कि जातिवाद एक अभिशाप हैं , जिसे कबीला संस्था जीवित रखे हुए हैं ! इस बात को सभी मानेंगे कि जातिवाद और जन्म-भेद , जहा तक उन का संबंध धर्म और अध्यातम से हैं , बिलकुल भीन्न हैं | लेकिन हमे इन शब्दों के अर्थो को गंभीरता और बारीकी से समझने का प्रयास करना चाहिए | इस का अर्थ हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी खास परिवार मे जन्म लेने से महान नहीं बन जाता ; और न ही जन्म के आधार पर किसी को स्वर्ग मे स्थान मिलने वाला हैं | इसी प्रकार यह बात भी नहीं हैं कि किसी खास धर्म या परिवार मे जन्म के आधार पर , आध्यात्मिक दर्ष्टिकोन से , स्वर्ग मे किसी को छोटा या बड़ा समझा जाएगा ! कर्मो कि गुणात्मक द्रष्टि से विवेचना कर के अच्छों को इनाम और बुरों को सजा मिलेगी ! यदि कोई यह कहे कि आध्यात्मिक क्षेत्र कि भांति ही सांसारिक मामलों मे भी पालन पोषण , जाति-खून निरर्थक और महत्वहीन हैं , और कि आध्यात्मिक क्षेत्र कि भांति ही दुनियावी मामलों मे भी लोगो को धर्म को छोड़ कर अन्य किसी भी आधार का वर्गीकर्त नहीं किया जा सकता , और कर्मो के अलावा और कोई संगत और सार्थक मापदंड नहीं हैं , तो यह बात ठीक नहीं लगती ! सांसारिक क्षेत्र मे परिवार , पालन-पोषण , विधत्ता , धन , अधिकार , दर्जा और प्रभाव ऐसे तत्व हैं जो किसी व्यक्ति के महत्व का निर्धारन करते हैं ! इसी प्रकार रक्त-संबंध और लालन-पालन बिलकुल स्वाभाविक बाते हैं , और कई बार ये ऐसे आध्यात्मिक गुणो को पैदा कर देते हैं जो वासत्व मे अद्भुत और सम्माननीय होते हैं |

यह कहना भी पूरी तरह गलत हैं कि जन्म और जाति के संबंधो को स्वीकार करना और इन्हे महत्व देना आध्यात्मिक अथवा धार्मिक मान्यताओ , मार्यदाओं, और आदेशो के विरुद्ध हैं | यूरोप के ईसाई समुदाय स्वयं को एंगेलों सैक्शन , जर्मन , नोर्दिंस , लैटिन्स आदि कहने मे कोई शर्म महसूस नहीं करते | एशिया के मुस्लिम समुदाए खुद को तुर्क , अरब और अफगान कहते हैं , परंतु इस प्रकार के कथनो के बारे किसी को कोई आपत्ति नहीं | उत्तर-पश्चिम सीमा पार के हमारे पड़ोसी बड़े गर्व से अपने को यासाफिञ्जय , और महासूद और वज़ीरी कहते हैं | अलीगढ़ के एक नौजवान ने मुझे बताया कि रसूल करीम बड़े गर्व से कहा करता था : ' मैं मोहम्मद हू; मैं अरब हू और मैं हाशमी भी हू ' |

यदि तुर्क और अफगान स्वयं को क्रमशः तुर्क और अफगान कहने से , गैर -मुसलमान नहीं हो जाते ; ब्राह्मण और खत्री स्वयं को ब्राह्मण और खत्री कहने से गैर हिन्दू नहीं बन जाते ; अहलुवालिया और रामगढ़िया स्वयं को क्रमशः अहलुवालिया और रामगढ़िया कहने से गैर -सिख नहीं बन जाते ; तो जाटों को , यदि वे स्वयं को जाट कहते हैं , इस्लाम विरोधी , सिख विरोधी अथवा वैधिक सिद्धांतों के विरोधी के रूप मे पेश करने का क्या औचित्य हैं ?

दूसरे लोग अपने नामों के साथ अपनी जातियों को उपनाम के रूप मे जोड़ते हैं , यथा , सैयद , कुरैशी , सिद्दीकी , अंसारी , शर्मा , नातन , वर्मा , सोढ़ी , बेदी , जेटली , चावला , चड्डा , बजाज आदि; और उन के विरुद्ध कोई फतवा अथवा धर्मादेश , हिन्दू , सिख , अथवा इस्लाम धर्म के नाम पर जारी नहीं किया जाता ! इसके विपरीत अगर कोई अपने आप को जाट कौम का बेटा कह देता हैं तो ऐसा लगता हैं मानो वह अपने धर्म से गिर गया हो | वह भ्रष्ट हो जाता हैं , और भगवान विरोधी बन जाता हैं ; और उसने बहुत बड़ा पाप कर दिया , उसे नरक मे फेंकना पड़ेगा ! धर्म के ये ठेकदार भी जाट सगठनों कि भर्त्सना और बदनामी करते हैं और उन्हे बुरी नजर से देखते हैं | यह क्या आध्यात्मवाद हुआ ? यह कैसा वैदिक संदेश हैं ? इस धर्मदेश या फतवा का क्या आधार हैं ? कितनी निरर्थक हैं ये दलील ! ये कैसा इंसाफ हुआ ?

आपत्तियों के मुख़्य कारण: इन आपत्तियों का कारण न तो इस्लाम के प्रति समर्पण भाव हैं; न सिख पंथ के प्रति सेवा भावना इसका कारण हैं ; न हिन्दू धर्म कि रक्षा भाव ! परंतु इस का कारण निहित स्वार्थों कि रक्षा कि कोशिश हैं ! हमारी जाट कौम गहरी नींद मे थी ; उन्नति -प्राप्त वर्ग , खास तौर पर शहरी शिक्षित वर्ग , और व्यापारी वर्ग हमारे अधिकारों को चटकर जाते थे | जब उन्होने देखा कि जाट इकट्ठे हो रहे हैं -संगठित हो रहे हैं , और अपने अधिकारों पर दावा जताने लगे हैं , तो वे (शहरी) बेचैन हो उठे हैं ! उन ने सोचा धार्मिक मुद्दे सहायक हो सकते हैं | वे जाटों को मूर्ख और असभ्य मानते रहे थे ; वे उन कि सादगी और अज्ञानता का मज़ाक उड़ाते रहे थे ; जाटों कि साफ़गोई को उन मे सभ्यता और संस्कृति का आभाव माना जाता था ! वे लोग अब इन भोले -भाले , सहनशील , गूंगे बहरे और अशिक्षित गरीब जाटों के जाग जाने के कारण दुखी हैं , चिंतित और विचलित हैं ; और उन लोगो ने उन्हे नींद मे ही बनाए रखने के लिए षड्यंत्र रचा हैं ; इन के साथ भेड़-बकरियों कि तरह बर्ताव करते रहने , और इन कि जुबानों और दिमागो को धर्म कि नशीली खुराक देकर बंद कर देने का षड्यंत्र रचा हैं ; वे डरे हुए हैं कि जाट यदि जाग गए तो उन मे बदले कि भावना आ सकती हैं ! धार्मिक निहित स्वार्थो के अतिरिक्त राजनीतिक स्वार्थ भी हैं | इस तरह के राजनेताओ और उन कि पार्टियों मे न तो कोई सेवा भाव होता हैं और न ही आध्यात्मिक भावना उत्साह | जो लोग हमारा विरोध कर रहे हैं , चिलल-पों कर रहे हैं और हमारे विरुद्ध झूठा प्रचार कर रहे हैं , वे आम तौर पर अपने धर्म अथवा मजहब के प्रति भी निष्ठावान नहीं हैं ! दूसरे शब्दो मे उन मे अपने मत के अनुसार प्रतिदिन प्रार्थना करने जैसे धार्मिक अनुष्ठान करने का अभ्यास नहीं हैं | ये ही संस्थाए , पार्टिया , और समुदाए हैं , जो आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र मे किए जा रहे हमारे प्रयासो को विफल कर देते हैं , और हमारी सभी उपलब्धियों को चट कर जाते हैं ! वे हमारे शोषक हैं , शुभेच्छु और प्यारे नहीं | वे केवल मात्र अपनी भलाई मे रुचि रखते हैं | वे हमारी कष्ट कमाई पर डाका डालने कि योजनाए बना रहे हैं ; वे हमारी जागृति , प्रगति और आत्मरक्षा एवं आत्मोत्थान के उपायों और प्रयासो को देख कर बेचैन हैं , बौखलाए हुए हैं ; यह देखकर उदास हैं कि उन का प्रिय शिकार शीघ्र ही बच निकालने वाला हैं ! वे हम पर दोषारोपण करके , और अपने पापों और कुक्र्त्यों पर पर्दा डालने कि कोशिश करते हैं; वे बहुत चालाक बनने कि कोशिश करते हैं , जैसे कि वे हमारे भाग्य-विधाता हों, हमारे जीवन-दाता हों और हमारे भविष्य के निर्माता हों ! ये लोग हमारी जागृति को देख कर भय का अनुभव कर रहे हैं ; वे हमारी उन्नति को पचा नहीं पा रहे हैं और बहुत बेचैन हों उठे हैं ! हमारी जागृति को वे अपनी मौत का संकेत मान रहे हैं ; भगवान का मुखौटा लगाए हुए ये शैतान बेचैन हैं ! इसका दोष हम पर कैसे लगाया जा सकता हैं ? जाटों ने अब सच्चे भगवान और सच्चे गुरु को पहचान लिया हैं !

हमारा जवाब यह हैं : हमारा किसी से झगड़ा नहीं हैं ; हम सब धर्मो का आदर करते हैं , किसी के धार्मिक मामलो मे दखल नहीं देते ; हम धार्मिक कट्टरपंथियों से दूर रहना चाहते हैं ; हम आपसी सूझ-बुझ मे विश्वास रखते हैं जिस के कारण हम समाज को लाभकारी सेवाएं देने कि स्थिति मे हैं | शुभ कार्यों के लिए हमारी सेवाए सदा उपलब्ध रहती हैं | हमारी ओर से कोई भी जाट अपनी सोच और अपनी आस्था के अनुसार किसी भी साधारण अथवा सांप्रदायिक-राजनीतिक पार्टी मे शामिल होने और अपने सहयोग -सहायता से उसे मजबूत करने मे स्वतंत्र हैं | हम शुद्ध राजनीति - क्षेत्र मे भी अलग-अलग जगहों पर खड़े हैं | इस पृथकता के कारण मैं पहले बता ही चुका हू , हमारा संबंध केवल अर्थ-प्रधान राजनीति से हैं -अर्थात सांप्रदायिक आधार पर अधिकारों को निर्धारन हों जाने के बाद हम न्यायोचित एवं वैधानिक तरीके से उन अधिकारो कि सीमा मे रह कर उन का उचित हिस्सा हासिल करने कि कोशिश कर रहे हैं | हम सभी समुदायों के साथ पूर्ण सदभाव से रहना चाहते हैं - हम गरिमापूर्ण ढंग से मिल-जुल कर रहना चाहते हैं ; विशेष रूप से किसान जातियों के साथ प्रेम , आवश्यक एकता एवं सहयोग के साथ | हमारा समुदाय पिछड़ा हुआ हैं | हम देश के कमाऊ पूत हैं | दूसरी पिछड़ी जातियों के साथ हमारी हमदर्दी हैं | हम अपनी बिरादरी के आर्थिक एवं शैक्षिक स्तर को सुधारना चाहते हैं , और हम यह भी चाहते हैं कि दूसरी जातियों को भी अपने पिछड़ेपन से मुक्ति पा लेनी चाहिए ! इस उद्देश्य को लेकर हमारे बीच कोई विवाद नहीं हैं | हम सभी निहित स्वार्थो के साथ लड़ेंगे | आपसी सूझ-बुझ के साथ हमे एक दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए | देश तब ही सम्पन्न बनेगा जब हम पिछड़ेपन से मुक्ति पा लेंगे | पूरा समाज खुशहाल होगा | हम स्वयं को संगठित कर के जाट बिरादरी कि विशेषताओ को सँजोकर रखना चाहते हैं और अपनी सभी सामाजिक कुरीतियों को दूर करना चाहते हैं | ' जाट्स एंड संसार कबील गालदा ' -यह हमारी कौम कि कमजोरी हैं | हमारे विरोधी सब अवसरों पर इस का लाभ उठाते हैं | हमे इस कमजोरी को दूर करना हैं | हमारा 90 प्रतिशत कार्यकर्म आर्थिक ,शैक्षिक और सामाजिक सुधारों और उत्थान से संबंधित हैं | इस के बावजूद यदि कोई हमारे खून का प्यासा बनेगा तो हम जैसे को तैसा कि भावना से प्रत्याक्रमण करेंगे -मुंह तोड़ जवाब देंगे ! हम धर्म के क्षेत्र और इसकी सीमाओं को अच्छी तरह समझते हैं , और इन सीमाओं के भीतर हम धर्म को पूरा सम्मान देते रहेंगे , लेकिन हम किसी भी धर्म कि गलत व्याख्या और इसका दुरुपयोग कर के हम को मूर्ख बनाने कि इजाजत नहीं देंगे | सांसारिक मामलों मे जन्म और खून के रिश्तों को हम मजबूत , ठोस एवं पवित्र संबंध और बंधन मानते हैं | हम इस निम्न शेर मे व्यक्त शास्वत सत्य मे विश्वास करते हैं :

" हमने ये माना मजहब जान हैं इंसान कि |
कुछ इसके दम से कायम शान हैं इंसान कि
रंग-ए-क़ौमियत मगर इससे बदल सकता नहीं |
खून आबाए -रग तन से निकल सकता नहीं | "

Sunday, November 23, 2014

My INTERVIEW WITH COMRADE LENIN

"REFLECTIONS OF AN EXILE" by Raja Mahendra pratap Singh
My INTERVIEW WITH COMRADE LENIN
This is the story of 1919. I had come back to Russia, from Germany. I stayed at the
palatial building of the former Sugar-king. Moulana Barkatullah could establish his head quarter at this place. He was in very good relation with the Russian Foreign Office. When
there was, scarcity of food in the city we were right royally feasted. My Indian friends who
had started on this journey with, me from Berlin could also come and gather here. One evening we received a phone-call from Soviet Foreign Office. I was told that someone was coming and that I should hand over my pamphlets to the man. This I did. Next morning was the day when I with my friends were to meet Comrade Lenin at the Kremlin.Prof. Vosnesensky took us to the ancient Imperial Palace of Moscow. We passed through the guards. We went upstairs. We entered a big room 'with a big table at which was sitting
the famous Red, Leader Comrade Lenin. I being at the head of the party entered first and Proceeded towards the figure sitting right before me .To my astonishment the man or the hero stood up suddenly, went to a corner and fetched a small chair and put the chair near his office chair. And as I arrived by his side he asked me to sit down. For a, moment I thought in my mind, where to sit, asking myself, should I sit on this small chair brought by Mr. Lenin himself or should I sit on one of the huge easy chairs covered with Morocco leather. I decided to sit on that small chair and sat down, while my friends, Moulana Barkatullah and others, took their seats on richly upholstered chairs.
Comrade Lenin asked me, in what language he was to address me-English, French, German
or Russian. I told him that we should better speak in English. And I presented to him my book of the Religion of Love. To my astonishment he said that he had already read it. Quickly arguing in my mind i could see that the pamphlets demanded by the Foreign Office a day earlier were meant for Lenin himself. Mr. Lenin said that my book was “Tolstoyism" . I presented to him also my plan of having notes repayable not in gold or silver but in more necessary commodities such as wheat, rice, butter, oil, coal, etc. We had quite a long conversation. Mr. Lenin had a few words to say to all of us. So much so that Lenin also asked a couple of questions of a servant of Moulana Barkatullah who remained standing a bit far. Prof. Vosnesensky also did not sit

It was after this interview that the foreign office decided that I must accompany His Excellency Mr. Surits, the first Russian ambassador to the court of Afghanistan. My job was to introduce Mr. Surits to King Amanullah Khan. Of course, the official position of the ambassador needed not any introduction of some private character. But it was thought that as I was a personal friend of the King I could better plead personally on behalf of Red Bear.
credit - http://rajamahendrapratap.net/


Monday, July 28, 2014

relation between the Indian Jats and the Nordic and European Goths

A relation between the Indian Jats and the Nordic and European Goths?
An old book about races mention the relation between the Jats of India and the Scandinavian Goths: "The Ruling Races of Prehistoric Times in India, Southwestern Asia, and Southern Europe" by James Francis Katherinus Hewitt (1894). Here is a cut and paste from this book from page 480 to 483.
"480.
The two most numerous of the agricultural castes in the Muttra district, are the Jats, numbering 117,265 persons, and the Chaniars, 99,110. The crops grown consist almost entirely of autumn crops, Joar {Holcus sorghum), Bajra (Holcus spicatus) and cotton, and winter crops wheat, gram (Cicer arietinum) and barley — barley being the crop which is most grown, while rice crops are unknown. Hence we see clearly that the people who first cleared the land of forest were the race who grew millets, cultivated, according to the Song of Lingal, by the Gonds who were saved from the Flood and the hostility of the alligator Mug-ral, by the tortoise, and were followed by the first growers of barley, who were, as I have shown in Essay III., immigrants who had come to India from Asia Minor. Of the two most numerous agricultural tribes descended from these early immigrants, the Chamars, who are hereditary slayers
  481.
  of cattle and dealers in leather, are undoubtedly the descendants of a race of cattle herdsmen, who under Kushite rule, when the artisans were divided into septs practising special trades, became tanners and sellers of leather goods. The Jats, on the other hand, are pure agriculturists, who boast that they can produce better crops from their lands than any other race of hereditary farmers. Their chiefs still hold extensive estates in the district, and it must have been they who originally cleared, not only the lands of Muttra, but also those of all the other districts west of the Ganges, in which the Jats hold a similar position as leaders of the agricultural tribes to that held by the Kurmis in Oude to the east of the Ganges, in Bengal, Central India, and Bombay, where Jats are unknown. The Jats must, therefore, be the race known in the Mahabharata and Rigveda as the Srinjaya or sons of the sickle (srini), the Panchala rulers of the Gangetic Doab, who conquered India under the Pandavas, and they must also have belonged to the tribes who formed in India the confederacy of the sons of the tortoise, for they trace their descent to the land of Ghuzni and Kandahar , watered by the mother-river of the Kushika race, the sacred Haetumant, or Helmend. Their name connects them with the Getæ of Thrace, and thence with the Guttones, said by Pytheas to live on the southern shores of the Baltic , the Guttones placed by Ptolemy and Tacitus on the Vistula in the country of the Lithuanians , and the Goths of Grothland in Sweden . This Scandinavian descent is confirmed by their system of land- tenures, for the chief tenure of the Muttra district is that called Bhayachara, in which the members of the village brotherhood each hold as their family property a separate and defined area among the village lands, according to the custom of the Bratsvos of the Balkan Provinces and the Hof-Bauers of North- west
482. 
Germany, which I have already described in Essay II., and not the mere right to an allotted portion of the village lands held in common by the rice-growing matriarchal village communities. The Getæ of the Balkans are said by Herodotus to be the bravest and most just of the Thracians , who worshipped one god, called Zalmoxis, or Grebeleizen, the thunder and lightning-god, to whom they send a messenger every five years, the mission being accomplished by throwing him on three spears and thus sacrificing him. These Thracian Getæ must, as a Northern race of individual proprietors, have held their lands on the tenure existing in the Jat villages, and these Indian Jats, or Getæ, have not degenerated from the military prowess of their forefathers, for those Jats, who have become Sikhs in the Punjab, are known as some of the best and most reliable Indian soldiers . Further evidence both of the early history and origin of the race of Jats, or Getæ, is given by the customs and geographical position of another tribe of the same stock, called the Massagetæ, or great (massa) Getæ. Herodotus describes them as living on the western shores of the Caspian Sea in the lands watered by the Araxes and its tributary, the Kur. Thus their home is the same as that of the ancient Iberians, whose mother-mountain is Ararat, whence the Araxes rises, which stands almost halfway between the Caspian and Black Seas, and the names of the former sea and of the river Kur, preserve the roots kus and kur, the two forms of the name of the father of the tortoise race. It was here, in the land of Georgia, that the reverence for the rain- god as the father of life originated, and it was here, as I have shown in discussing the myth of St. George, that the festival to the plough-god, the Naga, held in the month of April-May, the original form of the Palilia of Italy, and Maifeuer of Germany was first instituted, and it is this festival which is still observed by the Jats of Muttra and the Gonds of Central India as the Akht-uj" (End of quote). It is indeed interesting to see how this author as many of the same generation particularly during the late 1800-eds completely turned the facts, as if the very sparsely populated Scandinavia could have been the cradle of people in Europe, Caucasus and India. Additionally many authors of this time- period often had a "one cradle" theory of the Goths. It is more likely that the Goths came to e.g. different parts of Europe and Caucasus from Asia, than the other way around. The origin of the Goths and the Jats were unlikely in Scandinavia.

haryana me vikash ya vinash???


माननीय

भूपेंदर सिंह हुड्डा  जी

मै आपका एक पक्का समर्थक हूँ | हालाँकि मै कांग्रेस का कट्टर विरोधी हूं पर आपके प्रति मेरी विशेष सहानुभूति है | मै उत्तर प्रदेश के बाघपत जिले का एक साधारण नौजवन हूं, इस हिसाब मुझे हरयाणा के बारे में कुछ बोलने का हक तो नहीं बनता पर एक जाट होने के कारण मेरी कुछ चिंताए है जिसका बारे में आप और आपके समर्थको को सोचने की जरुरत है | कुछ लोग आज कल आपकी तुलना चौधरी छोटूराम , चौधरी चरण सिंह जैसे नेताओ से कर रहे है पर मुझे लगता है कि वे बिलकुल गलत है | आपने जाट समाज को आरक्षण दिलवाया , इस एहसान को पूरा जाट समाज कभी नहीं भूलेगा | पर आरक्षण के एहसान के तले आप जाट समाज का नुकसान करे ये भी नहीं हो सकता | 

     मै आपकी विचारधारा के बिलकुल खिलाफ हू| जिस पूंजीवाद के खिलाफ हमारे जाट समाज ने कुबनिया दी उसी पूंजीवाद को आप आगे बढ़ा रहे है| आपके विकास का modal बिलकुल गुजरात जैसा ही है| यानी विनाश का modal| मेरे समझ में नहीं आता की उद्योगपतियो को जमीन बेचकर आप कौन सा विकास करना चाहते है??

अगर आपने जाट जाति के इतिहास को पढ़ा हो तो पता चलेगा की जाट हमेशा खेती करते आये है|| भारत से लेकर यूरोप तक जाटों के पास दुनिया की बेहतरीन जमीन है | जाटों ने तो राजस्थान के बंजर में भी खेत बना दिए | ये जमीन हमरे पूर्वजो की दें है जिसके पीछे हजारो सालों का संघर्ष है, बलिदान है |आज हमें जमीन एक मामूली सी चीज लगती है पर अगर आप जाट देवताओ के बलिदान को देखेगे तो पता चलेगा की ये कोई मामूली चीज नहीं है| इसकी कीमत इतनी है की एक साधारण आदमी इसकी कीमत नहीं दे सकता| आप कहते है की जाट जमीन बेचकर अन्य काम कर सकते है, हा जरूर कर सकते है पर अपनी जमीन पर बिहारियों को बसाकर नहीं| अगर जाट अपनी जमीन दुसरे जाट को बेचे तो मुझे कोई परेशानी नहीं है पर अगर गैर जाट हमरे पूर्वजो की जमीन पर कब्ज़ा कर ले तो मुझे बड़ा दुःख होता है |

     आप पूंजीपतियो को जमीन बेचकर, पुरे हरयाणा में कंक्रीट के जंगल तयार कर रहे हो , जहाँ बहार के लोग आकर बस रहे है और हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहे है , अगर ऐसा ही चलता रहा तो जाट ही अपनी जमीन पर अल्पसंख्यक हो जायेंगे | ये मात्र मेरी शंका ही नहीं है बल्कि हम ऐसा जाटलैंड दिल्ली में देख चुके है| जाटों की दिल्ली बिहारियों और गढ़वालियो की दिल्ली बन चुकी है| जाट अपना रानीतिक वजूद खो चुके है| जाटों के घर अब बिहारिओ के ठिये बन गए है, मुझे बिहारिओ से कोई परेशानी नहीं, बस दुःख है तो अपनी संस्कृति के नष्ट होने का, बलिदान की भूमि पर ऐरो गेरो के राज होने का | ऐसा ही कुछ आप गुडगाँव , फरीदाबाद में देख सकते है|और अगली डेस्टिनेशन सोनीपत, पानीपत, बहादुरगढ़ आदि होगे|

       कहते है की घणे आगे की नि सोचनी चाहिए पर मै आगे की पहले सोच लेता हु| दुनिया में किसी के पास कोयला है, किसी के पास पेट्रोलियम है, किसी के पास सोना है , तो किसी के पास और कुछ| और ये सब जयादा दिन नहीं चलेगा, जल्द ही ख़त्म हो जाएगा , इस से कमाए पैसे भी जरूर ख़त्म होगे, और फिर सब वही होगे जहा से चले थे यानी सब कंगाल| पर जाटों के पास एसी चीज है जो हमेशा सोना उगलेगी, जो कभी ख़त्म नहीं होगी  , यानी जमीन!!!! पर ऐसा तभी संभव होगा जब हम आगे की सोचे, अपनी कौम में एक अटूट एकता पैदा कर दे, पूंजीवाद को ख़त्म कर दे |

     सर छोटूराम जी , चौधरी चरण सिनघ जी ने कहा था की कम से कम एक जाट को हर परिवार से शहर में भेजना चाहिए , ये एक दूरगामी सोच थी| गाँव की ज्यादातर समस्याओ का हल था इस सोच में | अगर परिवार से एक दो जाट शहर के संसाधनों का इस्तमाल करके अपने गांवों को आगे बढ़ने का काम करेगा तो ज्यादातर समस्या ख़त्म हो जायेगी | अगर कोई जाट जमीन बेचे भी तो केवल जाटों को ही दे |न की इन पपूंजीपतियो को जो जमीन के साथ साथ संस्कृति को भी नष्ट कर दे|  कुछ जाट सोच रहे है की उनका गाँव भी एनसीआर में हो, हर जगह फलैट बन जाए, हम भी दिल्ली वालो की तरह माकान के किराये पर मौज करे| कुछ कहते है की केवल विकास गुडगाँव , सोनीपत, रोहतक में हो गया म्हारे यहाँ कुछ नि हुआ| उनके कुछ का मतलब है की जमीन की बिक्री|  उनको दूर के ढोल सुहाने लग रहे है|  कुछ कहते है की यहाँ की जमीन बेचकर और जगह ले लेगे, पर इस बात की क्या गारंटी है की वहा की जमीन भी आप नहीं बेचोड़े??? यानि बेच बेच कर कितनी पीढियों का गुजरो करोगे, इस बिरादरी  को क्या देकर जाओगे??

      मेर सोच पूंजीवाद विरोधी है, शोश्लिस्ट विचारधारा को मै मानता हु, थोडा साम्यवादी भी हु पर ऐसा कहकर आप मुझे गलत सिद्ध नहीं कर सकते और न ही मेरी शंकाओ को नकार सकते |

     मेरे पास इसका समाधान भी है, पर ये तभी लागु होगा जब हम अपनी खप व्यवस्था को सर्वोचता के साथ स्थापित करेगे, खप को परिवार की जजागीर  न बनकर पुरे जाट समाज की भागीदारी के साथ इसको मजबूत करेगे |हमें अपने स्तर पर भूमि सुधर आन्दोलन चलाना पड़ेगा\ नौकरी करने वाले जाट, विदेशो में रहने वाले जाट ,, को अपनी जमीन खापो के माध्य\म से जरूरतमंद जाट को दान करनी चाहिए ताकि खेती करने वाले जाट को जमीन की कमी न पड़े, वो भी आपके साथ आगे बढ़ सके| फिर देखना सारे जाट पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर लेगे|खेती करने वाले किसान के बालक भी बड़े शहरो में पढेगे, वे भी विदेश जायेगे, एक दो जो पढ़ नि पायेगा वो भी खेती करके मौज करेगा| अगर जाट किसान खुश होगा तो निश्चित  तौर पर जाटों पर निर्भर जातियों को भी आगे बढ़ने का मौका मिलेगा |जिस दिन हर जाट मेरी तरह से सोचेगा टो मई गारंटी लेता हु की कोई जाट दुखी नहीं होगा| आरक्षण का फायदा भी तभी होगा|

       इसलिए हुड्डा जी कुछ सोचिये समाज के बारे में भी, अगर सोच नहीं सकते तो हमारी जमीनों को टो मत बेचो| इतनी भी क्या रानीतिक मबोर है जो वद्र को जमीन सौंप रहे हो, आरक्षण का बदला टो जाट पहले ही उतार चुके है, बोहत जमीन दे चुके वद्र , अम्बानी को| सब आपकी तरह अमीर नहीं है, जरा आँख खोलकर देखो, बोहत विनाश कर चुके है आप| क्रांति की शुरआत घर से होती है, तो मैंने ये लेख लिख दिया| भगत सिंह जी ने कहा था की विचार क्रांति की धर को तेज़ कर देते है, मैंने अपने विचार रख दिए , आगे मर्जी आपकी है |

धन्यवाद

 चौधरी अभिषेक लाकड़ा
 
नोट - पोस्ट राजनितिक उद्देश्य से बिलकुल नहीं लिखी गयी है, अतः फालतू में समय बर्बाद न करे| सुझाव के लिए abhichaudhary06@gmail.com par likhe.